कलयुग की अवस्था के बारे में श्रीमद् भागवत महापुराण में दी गई जानकारी

कलयुग की अवस्था के बारे में श्रीमद् भागवत महापुराण में दी गई जानकारी
कलियुग का प्रथम चरण चल रहा है या बाल्यावस्था में है और कलयुग की आयु 432 000 ऐसा पंडितों, कथाकारो और संतो कह रहे हैं किंतु श्रीमद् भागवत महापुराण में कलियुग की अवस्था के बारे में स्पष्ट प्रमाण दिए गए है। जब कलियुग के 2300 वर्ष बीत जाने पर भक्ति देवी और नारद मुनि का संवाद होता है इसका उल्लेख भागवत महात्म्य के प्रथम अध्याय दिया गया है। यह संवाद के अनुसार उस समय घोर कलियुग चल रहा था और कलियुग दारुण (मध्य)अवस्था में था, ऐसा नारद मुनि भक्ति देवी को कह रहे थे। यह नीचे दिए गए श्लोक से स्पष्ट होता है। अभी कलियुग को 5128 वर्ष बीत गए हैं । हमें यह सोचना होगा कि अभी कलियुग की कौन सी अवस्था चल रही होगी?
श्लोक-6
इह घोरे कलौ प्रायो जीवश्चासुरतां गतः। क्लेशाक्रान्तस्य तस्यैव शोधने किं परायणम्॥
इस घोर कलि-कालमें जीव प्रायः आसुरी स्वभावके हो गये हैं, विविध क्लेशोंसे आक्रान्त इन जीवोंको शुद्ध (दैवीशक्तिसम्पन्न) बनानेका सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है ? ॥6॥
श्लोक-28, 29, 30
नारद उवाच अहं तु पृथिवीं यातो ज्ञात्वा सर्वोत्तमामिति। पुष्करं च प्रयागं च काशीं गोदावरी तथा।।
हरिक्षेत्रं कुरुक्षेत्रं श्रीरङ्ग सेतुबन्धनम्। एवमादिषु तीर्थेषु भ्रममाण इतस्ततः॥
नापश्यं कुत्रचिच्छर्म मनःसंतोषकारकम्। कलिनाधर्ममित्रेण धरेयं बाधिताधुना।।
नारदजीने कहा-मैं सर्वोत्तम लोक समझकर पृथ्वीमें आया था। यहाँ पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी (नासिक), हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्रीरंग और सेतुबन्ध आदि कई तीर्थों में मैं इधर-उधर विचरता रहा; किन्तु मुझे कहीं भी मनको संतोष देनेवाली शान्ति नहीं मिली। इस समय अधर्मके सहायक कलियुगने सारी पृथ्वीको पीड़ित कर रखा है।॥ 28-30॥
श्लोक-31, 32, 33
सत्यं नास्ति तपः शौचं दया दानं न विद्यते। उदरम्भरिणो जीवा वराकाः कूटभाषिणः॥
मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्यपगताः। पाखण्डनिरताः सन्तो विरक्ताः सपरिग्रहाः ।।
तरुणीप्रभुता गेहे श्यालको बुद्धिदायकः। कन्याविक्रयिणो लोभाद्दम्पतीनां च कल्कनम्॥
अब यहाँ सत्य, तप, शौच (बाहर-भीतरकी पवित्रता), दया, दान आदि कुछ भी नहीं है। बेचारे जीव केवल अपना पेट पालनेमें लगे हुए हैं; वे असत्यभाषी, आलसी, मन्दबुद्धि, भाग्यहीन, उपद्रवग्रस्त हो गये हैं। जो साधु-संत कहे जाते हैं वे पूरे पाखण्डी हो गये हैं; देखने में तो वे विरक्त हैं, किन्तु स्त्री-धन आदि सभीका परिग्रह करते हैं। घरोंमें स्त्रियोंका राज्य है, साले सलाहकार बने हुए हैं, लोभसे लोग कन्या-विक्रय करते हैं और स्त्री पुरुषोंमें कलह मचा रहता है। 31-33॥
श्लोक-34
आश्रमा यवनै रुधास्तीर्थानि सरितस्तथा। देवतायतनान्यत्र दुष्टैनष्टानि भूरिशः ।।
महात्माओंके आश्रम, तीर्थ और नदियोंपर यवनों (विधर्मियों) का अधिकार हो गया है; उन दुष्टोंने बहुत-से देवालय भी नष्ट कर दिये हैं॥34॥
श्लोक-35
न योगी नैव सिद्धो वा न ज्ञानी सक्रियो नरः। कलिदावानलेनाद्य साधनं भस्मतां गतम् ।।
इस समय यहाँ न कोई योगी है न सिद्ध है; न ज्ञानी है और न सत्कर्म करनेवाला है। सारे साधन इस समय कलिरूप दावानलसे जलकर भस्म हो गये हैं। 35॥
श्लोक-36
अट्टशूला जनपदाः शिवशूला द्विजातयः। कामिन्यः केशशूलिन्यः सम्भवन्ति कलाविह। * अट्टमन्नं शिवो वेदः शूलो विक्रय उच्यते। केशो भगमिति प्रोक्तमृषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः।।
इस कलियुगमें सभी देशवासी बाजारोंमें अन्न बेचने लगे हैं, ब्राह्मणलोग पैसा लेकर वेद पढ़ाते हैं और स्त्रियाँ वेश्या वृत्तिसे निर्वाह करने लगी हैं॥36॥
श्लोक-48
उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता। क्वचित्क्वचिन्महाराष्ट्र गुर्जरे जीर्णतां गता ॥
मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई, कर्णाटक में बढ़ी, कहीं कहीं महाराष्ट्र में सम्मानित हुई; किन्तु गुजरात में मुझको बुढ़ापे ने आ घेरा॥48॥
श्लोक-49
तत्र घोरकलौगात्पाखण्डैः खण्डिताङ्गका। दुर्बलाहं चिरं याता पुत्राभ्यां सह मन्दताम्॥
वहाँ घोर कलियुगके प्रभावसे पाखण्डियोंने मुझे अंग- भंग कर दिया। चिरकालतक यह अवस्था रहनेके कारण मैं अपने पुत्रों के साथ दर्बल और निस्तेज हो गयी।49॥
श्लोक-57
नारद उवाच शृणुष्वावहिता बाले युगोऽयं दारुणः कलिः। तेन लुप्तः सदाचारो योगमार्गस्तपांसि च ॥
नारदजीने कहा-देवि! सावधान होकर सुनो। यह दारुण कलियुग है। इसीसे इस समय सदाचार, योगमार्ग और तप आदि सभी लुप्त हो गये हैं। 57॥
श्लोक-58
जना अघासुरायन्ते शाठ्यदुष्कर्मकारिणः। इह सन्तो विषीदन्ति प्रहृष्यन्ति ह्यसाधवः । धत्ते धैर्यं तु यो धीमान् स धीरः पण्डितोऽथवा ।।
लोग शठता और दुष्कर्ममें लगकर अघासुर बन रहे हैं। संसारमें जहाँ देखो, वहीं सत्पुरुष दुःखसे म्लान हैं और दुष्ट सुखी हो रहे हैं। इस समय जिस बुद्धिमान् पुरुषका धैर्य बना रहे, वही बड़ा ज्ञानी या पण्डित है।॥58॥
श्लोक-59
अस्पृश्यानवलोक्येयं शेषभारकरी धरा। वर्षे वर्षे क्रमाज्जाता मङ्गलं नापि दृश्यते ॥
पृथ्वी क्रमशः प्रतिवर्ष शेषजीके लिये भाररूप होती जा रही है। अब यह छुनेयोग्य तो क्या, देखनेयोग्य भी नहीं रह गयी है और न इसमें कहीं मंगल ही दिखायी देता है।59॥